वो ठोकरें मारते, धकेल रहें थे पत्थरों को,
बना उसका फुटबाल, लेकिन
लगा,जिन्दगी को ठोकर मारते अपनी,
निकाल रहे थे, अपनी झुंझलाहट,
शायद,
पूछा क्यों खेलते, जिन्दे पत्थरों से,
इन्सान क्यों नहीं बनते,
पाएंगे, संतुलन जीवन मे, जिन्दगी का,
वरना चलोगे,
छाती से चिपकाये कंकाल जीवन समझ,
न पीने दे, न खुद पीयें,
जीवन के अमृत को,
कम्बक्त, पत्थर भी खोंफ खाएं,
बदलते रास्ता, देख तुम्हे
बदलो राह, बनाओ संतुलन,
बचा पाओगे,अपनी अस्मत को,
वरना करें हलाल, सरे आम, सरे बाज़ार,
मानो इसे, करो संतुलन,
इस खूबसूरती से, कि दंग रह जाये,
कातिल भी,
जो तैयार, लूटने को, अस्मत तुम्हारी,
हाँ तुम्हारी,
पीयो अमृत, विसर्जन करो, कंकाल को,
पाओगे,
सुकून को, सुकून से.
मुसाफिर क्या बेईमान
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