Sunday, May 29, 2011

रोका किसने मुझे?




कहना था कुछ,
मगर   रोका मुझे, इक  बात ने,
आपकी - - -
मिला जवाब - - -                                                 
उम्मीदों  मे,  नहीं  जिया  करते हम,
चलते  है,  रास्तों  को  बनाते  हुए,
ताकि
  फिसल  पाए,  
कोई  गैर या अपना,
जीते है,
इन्ही असूलों पर,  
पसंद या नापसंद,
ये असूल,
न सीखा मैंने,
फिर किसने, रोका उसे,
शायद झंझावतों ने उसके
क्या निकल पाओगे
इससे
मिल पाए जवाब, अगर,
रोकना, अपने को,
कहने से कुछ,
चल करइतला देना
इक  बात क़ी,
निकल जाये- - -
गुमान दिल के,
इक बात, कहने से
शायद----
हाँ, सही है - - -
शायद.   - - -मुसाफिर क्या बेईमान

Saturday, May 28, 2011


जीवन सारांश

पलट कर देखता हूँ, 
तो 
लगता है ये सब-कुछ, 
ताजा-ताजा
परन्तु 
महसूस होता, एकांत मे 
कि
बीत गयी 
सदियाँ लेकिन
और 
जी रहें ---
है जिन्दा हम,
इसी कशिश मे,
कि कल फिर 
से लायेगा
ताजगी 
ताजा-ताजा 
                ---मुसाफिर क्या बेईमान 
 
 

Monday, May 23, 2011

ये है जीवन ? ? ?

 
 अहंकार न देखे, उम्र-ऐ-दराज                

संस्कारों की क्या बात करें,

 चैट से चैट, सिर्फ बहाना बना

 व्यवहार को परखने का,

क्या बडडपन है, बडेपन का,

दुःख को जतलाने का,

शायद यही प्यार है, नए ज़माने का

जो न देखता उम्र,

दिखाता, तानाशाही भरा प्यार,

याद आया,

ये तो शेकस्पिअर की आखरी स्टेज  है,

बचपन आता, लोटकर वापिस, 

बुढ़ापे मे दोबारा, 

न मानो बुरा,

उम्र-ऐ-दराज की शरारतों का 

न खीचों कान, मानव अधिकारों का होगा उल्लंघन, 

भूलों शरारती की शरारत को,

विशाल दुनिया है अपने ब्लॉग की,

जानो, मानो, यही सच है,

शायद. 


केवल राम  जी के ब्लॉग चलते -चलते पर लिखी पोस्ट को पढ़कर मन नहीं रुक सका ..और कह दी भावनाएं अपनी ..कि वास्तविकता क्या है ..! 


                                                       .........मुसाफिर क्या बेईमान 
                                                 

Sunday, May 22, 2011

सफ़र- ऐ- जिन्दगी


बिन चाँद की रात,
तारे टिमटिमाते, भरपूर रौशनी से,
गा रहें, पैगाम-ऐ-जिन्दगी,
दिखाते रास्ता, गुमनाम किश्ती को,
अंधियारी रातों मे,
ताकि,
भटक न जाये वो, अथाह समुद्र मे,
बनते मार्गदर्शक, 
टिमटिमाते, रात से भोर तक,
और
चलता सिलसिला, सफ़र-ऐ-जिन्दगी,
पहुंचे मंजिलों को, 
या
निगल जाता, ये अथाह सागर,
छुपा लेता, तलहटी की बगल मे,
भूलें हम, बीते समय के साथ,
कि
कुछ हुआ था यहाँ
और चल देते है,
फिर उन्ही रातो मे,
जिसमे चाँद न था
सिर्फ थे तारे, 
और चलता,

सफरे-ऐ-जिन्दगी---
कारवां से कारवां तक. -----मुसाफिर क्या बेईमान

Saturday, May 21, 2011

क्या है मंथन?

जिन्दगी मे सहजता से जीना चाहें,
तो फसा देते है लोग,
एक चक्रवुयूह मे,
जटिलताओ के घेरे मे,
लूट लेते है इज्जत,
और
करते है कोशिश,
कि लूट लिया आपने ही,
क्या ये आंसू,
इतने सहज है, निकल जाते है,
बस यों ही,
तलाशना होगा इसका जवाब,
वरना
जिन्दगी कट जाएगी
बस यों ही

Friday, May 20, 2011

किसे कहें शराफत--? ? ? ? ? ? ?

मैंने शराफत को दिल से माना,
जाता था, मंदिर हर सुबह
होती थी, दिन की शुरुआत
शराफत तो लगा तमाचा
पाया अख़बार मे, पंडित की करतूत, 
की दूसरे की किस्मत, बनाने को 
मिलती भगवान से इजाजत, 
बलात्कार करने की, 
मिटा दी उसकी किस्मत, 
अपनी भूख मिटाने को,
ऐसे हजारों किस्से है, आज 
किसे कहे शराफत,
शराफत के पीछे छिपे, दरिन्द्ता  को
या उस इंसान को, समझे ये समाज,   
नासमझ, बेवकूफ, ईमानदार 
माने इसानियत को, उसकी मेहनत को,
छोड़ा आपकी खुद्दारी पर, 
जैसा मानोगे, वैसा पाओगे,
 इंसान---- या--- शैतान---.
                             मुसाफिर क्या बेईमान








  

Tuesday, May 17, 2011

चाहत

 

 




चाह भी क्या चीज है,
चाहत के आसमान मे, 
स्वछंद उड़ने की चाह
बाँहों मे बाहें डाल
घूमने की चाह 
मिलने पर ठुकराने की चाह 
न मिलने पर ढूंढने की चाह,
ढूंढते हुए किसी और को 
ढूंढने की चाह,
इसलिए 
चाहते अनेक पर, 
उन्हें काबू करने की चाह,
अनियंत्रित होने की चाह,
अपने मे डूब जाने की चाह,
ये चाहते भी क्या खूब है,
किसी को जीने की चाह,
तो कोई मरने की चाहत,
या मरते हुए भी जीने की चाह,
चाहते 
हाँ यही है चाह,
सब कुछ बस चाह---
और चाहते----
बनती है फिर से 
नई चाह ----------मुसाफिर क्या बेईमान    
   
 

Monday, May 16, 2011

गहराई ---प्यार मे

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               मुसाफिर क्या बेईमान  

Wednesday, May 11, 2011

ग़मों की तरलता

वो पीते, गम भुलाने को, 
आती यादें, पीने के बाद
और पीते, शायद भूल जाएँ, 
पी--पी कर लेते, अपने से ही,
प्यार मे इंतकाम
अश्रु लाता, मिठास, इंतकाम मे,
और पीते, यही कहते,
अपनी मौत का किया इंतजाम, 
यही है मेरा इंतकाम, 
लेकिन, 
यादें बढती जाती,
पीना बढता जाता
दो लम्हे का आराम भी, 
करता बैचन 
और, चलता जाता
पीना लगातार, बारबार, लगातार.
                                                    मुसाफिर क्या बेईमान 

Tuesday, May 10, 2011

इक शाम-दोस्ती के नाम


वो बैठे शांत चित्त, अख़बार बिछाये दीवार पर,
करती अठखेलियां उगलियाँ, सताने को, एक-दूसरे पर,
बाटें अपने- अपने जीवन की घटनाएँ
जैसे सुना रहें युद्घ के वृत्तांत, मिलकर दो फौजी सिपाही 
मंद- मंद गुणगुना रहे गीतश्रवणों में, एक-दूजे के,
जैसे विविध भारती प्रायोजित करता, सैनिक भाइयों का कार्यक्रम
नवम्बर की भीनी- भीनी ठंडी हवा के झोकों का,
लेते आनंद
बेखबर दुनिया सेकर रहें दिलों-मन को हल्का,
करते वार्तालापअपनी-अपनी दुनिया की,
करे समाज, देशशोध-प्रक्रिया, जाती प्रथा की चर्चा
पता चलाप्राचीन भारत की जाती-सूत्र के दो छोर है
ये नौजवान,
सामाजिक  बंधनों से दूर, बैठे है साथ-साथ
कसमे खाते भविष्य को संवारने की, एक-दुसरे के,
एक को चिंता अच्छी नौकरी, दूसरा स्वप्ने देखता बच्चो के
पता न चला, बीत गया लम्बा वक्त
साथ-साथ, बैठे दीवार पर,
सुकून से, प्यार से,
इक शाम, मेले मे, साथ- साथ.
                  मुसाफिर क्या बेईमान 

Saturday, May 7, 2011

फिर वही

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