Tuesday, September 20, 2011

बर्बादी-जिद से जिद की

ये जिदें भी कैसी,                                                        
कि- - - निजोड दे, जिस्म को,
इक ढेर बना दे, जैसे लगीं दीमक,
खून बना दे, खुश्क, दिखे बेरंग,

क्या इतिहास ने दिया सबक, 
भूला बैठे, इश्क मे,
माता कि जिद, भेजा बनवास, रची गयी रामायण,
और देखिये, धृतराष्ट्र कि पुत्र मोह क़ी जिद,
जयश्री के नाद से,
किया अपनी जिदों के किये युद्ध,
चाहे तीसरा महाकाव्य रचा जाये,                                                 
अडिग अपनी जिद पर,

किया बर्बाद, अपनी जान, अपने स्वयं को, 
जिद मे अपनी,
पहरा देंगे अपनी कब्र पर, 
न उगने देंगे, प्रेम-सदभाव को,
ताकि ---
न कम हो पाए, जिद अपनी,

जिन्दगी के न समझ पाए मायने,
छोड़ो जिद, बचा लो,इस दीमक से, शरीर को,
जो बर्बाद करेगी गुलिस्ताँ, दिखाएगी जलजले,
उजाड़ेगी चमन का बागबाँ, जिद से,
खाक मे मिल जाओगे, न मिलेगा कोई,
जिद के बिगुल को बजाने

खुद अपनी कब्र पर, फूल चढाते नजर आओगे,
हाँ, 
मानना न मानना, 
अपने ऊपर,
जिन्दा है, तो जिन्दगी क़ी जीत पर, यकीन कर,
जिद से न जीता किसी ने,  
न 
कोई नहीं -----
तमाम इतिहास है सामने, सामने-------
                                                                 मुसाफिर क्या बेईमान

Friday, September 9, 2011

क्या है सच?


दिलों का दर्द, बह जाता है,                                    
अश्रु बन, चुपके, चुपके,
न बयां होता ये दर्द,
लकिन,
न रोकें रुके, ये कमबख्त,
लुढ़कते 
गालों से,
 करहाते, दर्द से,
सच न समझ पायें,
और देखता रहा चुपचाप,
मै,
अनकहे सच को
निरीह सा---
अनजाना सा----
खोजता रहा--क्या है सच
उस सैलाब मै, बहते देख,
अनसुलझे सच को,
हाँ---
अनसुलझी दास्ताँ का,
सच,
शायद. 

------------------मुसाफिर  क्या बेईमान