उम्मीद क्यों होती है
न-उम्मीद से,
कि शायद पिघल कर
मोम हो जाये.
पत्थर भी कभी मोम होता है,
सिर्फ सुना था,
ये मन ही तो है,
जो लगाता है उम्मीदें,
और ढल जाता है
एक शाम की तरह,
फिर एक उम्मीद से,
ताकि देख सके
कभी
वो पत्थरों का मोम हो जाना,
आसमान का फटना
धरती मे समाने को,
या फिर,
खुद के जनाजे को,
देखना,
ना-उम्मीदों के कांधों पर.
मुसाफिर क्या बेईमान
न-उम्मीद से,
कि शायद पिघल कर
मोम हो जाये.
पत्थर भी कभी मोम होता है,
सिर्फ सुना था,
ये मन ही तो है,
जो लगाता है उम्मीदें,
और ढल जाता है
एक शाम की तरह,
फिर एक उम्मीद से,
ताकि देख सके
कभी
वो पत्थरों का मोम हो जाना,
आसमान का फटना
धरती मे समाने को,
या फिर,
खुद के जनाजे को,
देखना,
ना-उम्मीदों के कांधों पर.
मुसाफिर क्या बेईमान
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कभी
वो पत्थरों का मोम हो जाना,
आसमान का फटना
धरती मे समाने को,
या फिर,
खुद के जनाजे को,
देखना,
ना-उम्मीदों के कांधों पर... gahre bhaw
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