करती अठखेलियां उगलियाँ, सताने को, एक-दूसरे पर,
बाटें अपने- अपने जीवन की घटनाएँ
जैसे सुना रहें युद्घ के वृत्तांत, मिलकर दो फौजी सिपाही
मंद- मंद गुणगुना रहे गीत, श्रवणों में, एक-दूजे के,
जैसे विविध भारती प्रायोजित करता, सैनिक भाइयों का कार्यक्रम,
नवम्बर की भीनी- भीनी ठंडी हवा के झोकों का,
लेते आनंद,
बेखबर दुनिया से, कर रहें दिलों-मन को हल्का,
करते वार्तालाप, अपनी-अपनी दुनिया की,
करते वार्तालाप, अपनी-अपनी दुनिया की,
करे समाज, देश, शोध-प्रक्रिया, जाती प्रथा की चर्चा,
पता चला, प्राचीन भारत की जाती-सूत्र के दो छोर है,
ये नौजवान,
सामाजिक बंधनों से दूर, बैठे है साथ-साथ
कसमे खाते भविष्य को संवारने की, एक-दुसरे के,
एक को चिंता अच्छी नौकरी, दूसरा स्वप्ने देखता बच्चो के,
साथ-साथ, बैठे दीवार पर,
सुकून से, प्यार से,
इक शाम, मेले मे, साथ- साथ.मुसाफिर क्या बेईमान
4 comments:
यथार्थमय सुन्दर पोस्ट
कविता के साथ चित्र भी बहुत सुन्दर लगाया है.
वो बैठे शांत चित्त, अख़बार बिछाये दीवार पर,
करती अठखेलियां उगलियाँ, सताने को, एक-दूसरे पर,
बाटें अपने- अपने जीवन की घटनाएँ
जैसे सुना रहें युद्घ के वृत्तांत, मिलकर दो फौजी सिपाही
मंद- मंद गुणगुना रहे गीत, श्रवणों में, एक-दूजे के,bahut badhiyaa
सच्चाई को सामने रख दिया है एक शाम के माध्यम से ..!
शुक्रिया संजय जी, रश्मि जी और भाई केवल राम जी.
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