मै झूमता, खुशी महसूस करता
खिलखिलाते पोधों के गमले देखकर
जो स्वछंद बढते, खिखिलाते हमेशा,
पानी जो बरसाया, नाचते-गाते दिखते गमले सभी,
जैसे आभार करते व्यक्त, धूप, पानी-खाद के सेवन पर,
मानव क्यों नहीं सीखता, इससे
काश बदल सकता अपना वर्ताव, पोधों जैसे
जो करें आभार व्यकत, हर उसका
जो पिलाये पानी, नहलाएं उन्हें
परन्तु ये मानव, चेहरा देख,
दिखाए अपनी प्रकृति, अमीबा जैसे
पीठ पीछे मारें तलवार, सामने दे गुलदस्ता,
भेजें सन्देश प्यार का, है राक्षसी वर्ताव,
सीखो मानावे प्रकृति से, घुल-मिल जाओ इसमें,
वर्ना पछतावा न हो, इक दिन,
खुद को अप्रकृत महसूस कर,
कहीं नफरत न करें, प्रकृति के चील, गिद्ध, कोवे
तुम्हारे जिस्मानी शरीर पर,
सभलों समय है, बदलो अपने आप को,
सीखो इस प्रकृति से,
ढाल लो तन, मन, सम्पूर्ण इसमें,
पओगे इक नया जीवन,
शुरुआत करेंगे, महसूस कर पाएंगे तभी,
नया-नया स्वछंद सवेरा.
7 comments:
शुक्रिया।
शुभागमन...!
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हरीश सिंह.... संस्थापक/संयोजक "भारतीय ब्लॉग लेखक मंच"
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मानव को प्रकृति के साथ जोड़ने की सुंदर सीख सजे भाव इस कविता में अभिव्यक्त हुए हैं , मानव बेशक इस प्रकृति का दोहन करता है लेकिन वह खुद को प्रकृति का अंग नहीं मानता इसी कारण उसे प्रकृति के कोप का भाजन करना पड़ता है ...आपकी कविता में इन भावों का सुंदर सम्प्रेषण हुआ है ...आपका शुक्रिया
"सीखो मानावे प्रकृति से, घुल-मिल जाओ इसमें"
बहुत अच्छा सन्देश - शुभकामनाएं
बहुत सुन्दर सन्देश देती कविता| धन्यवाद|
हिन्दी ब्लॉगजगत के स्नेही परिवार में इस नये ब्लॉग का और आपका मैं संजय भास्कर हार्दिक स्वागत करता हूँ.
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