Monday, March 21, 2011

सफ़र --- मुसाफिर क्या बेईमान

ये रात जिसमे चाँद कहीं नहीं,
तारे टिमटिमा रहे है भरपूर रोशनी से
दे रहे,
कुछ कह रहे है ये,
पैगाम- ए-जिन्दगी,
गुमानम कोई है तो क्या,
दिखाते है रास्ता उस किश्ती को, 
इन रातों में भी, 
ताकि
भटक न जाये वो इस अथाह समुद्र में,
बनते है ये मार्गदर्शक भी,
टिमटिमाते हुए रात भर,
सुबह के भोर तक,
और
चलता रहता है ये सिलसिला,
चलती रहती है जिन्दगी,
कोई
पहुँच जाता है मंजिल को,
किसी को निगल जाता है,
ये अथाह सागर,
छुपा लेता है, अपनी तलछटी  मे,
लोग
भूल जाते है, एक समय के बाद,
कि
कुछ हुआ था यहाँ,
और चल देते है- - - 
फिर उन्ही रातों मे,
जिसमे चाँद न था,
सिर्फ थे तारे,
और चलता जाता है
इसी तरह ---
जिन्दगी का कारवां

3 comments:

केवल राम said...

जीवन सन्दर्भों की वास्तविकता को अभिव्यक्ति मिली है आपकी इस रचना में ....हम जिन्दगी में बेशक चाँद न बन पायें लेकिन तारा भी बन पाए तो जीवन की सार्थकता होगी ..किसी राह में भूले राही को राह दिखाने के लिए ...बहुत सुन्दरता से इस भाव को अभिव्यक्त किया है आपने ..आपका आभार

संजय भास्‍कर said...

किसकी बात करें-आपकी प्रस्‍तुति की या आपकी रचनाओं की। सब ही तो आनन्‍ददायक हैं।

संजय भास्‍कर said...

वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.