Saturday, April 23, 2011

कुदरत क्या बेखबर

See full size imageकहा किसी ने, See full size image
"फितरत  पर   नकाबों   के  इतने  रंग ,
कुदरत  भी  देख   रह   जाती  है  दंग ,
शायद  कुदरत  बेचारी  इस  कदर  बेखबर  है ,
की  इंसानी  फितरत  उससे  भी  कहीं  बुलुंद  है....!!"
See full size imageजवाब मिला, 
"न करो मजाक कुदरत को, बे-खबर समझ कर,
बहा ले जायगी, इक सुनामी की झलक दिखा कर,
न छेडो इसके, कुदरती रंगों को,
नका---बी  फितरतों पर पोत देगी, इक सुर्ख काली स्याही जैसे,
दिखा न पाओगे, खूबसूरती अपनी,
See full size imageसीखो कुदरत से, फैलाओ इसके हजारों रंग, 
बेखबरी से,------ बेखबर को, ----- 
लगातार, बार------बार----. 
**************************                                          मुसाफिर क्या बेईमान
                                   volcano2.jpg (32016 bytes)                                                                            
                                            
शुक्रिया शालिनी जी, आपके कमेंट्स से प्ररित होकर ये विचार प्रस्तुत किया है.  

Thursday, April 21, 2011

वफ़ा क्या ऐसे ---



समझ मे आ जाये, कमबख्त,
बदलते जज्बात इश्क मे,
वफ़ा से नजर आयगी, बेवफाई उसकी
सहते रहे जुल्मो-सितम,
इश्क के नज़ारे समझ कर,
अपने-अपने न रहे,
पराए न गैर सही
आसूं कमबख्त न रोकें, रुके,                  
मयखाने तो बहाने बने, इश्क मे,
अभी तो इश्क, की देखी झलक,
न जाने, क्या---क्या तमाम है बाकि, 
इस सफ़र के दरमयान.  


***************मुसाफिर क्या बेईमान

Sunday, April 17, 2011

लाल से लाल की- शोभा यात्रा

 दस्तक दी, उड़ा दिया
मिटटी  को, इतिहास पर बिछी चादर जैसे 
पूछा हैरानी  से, मुसाफिर तुम,  
द्वंदात्मक भौतिकवाद से, प्रभु भक्त, कैसे
जो कर दे भस्म घर को, कैसा भौतिकवाद,
क्या वैज्ञानिक समाजवाद, बनता राख के ढेर पर,
क्या इतिहासिक भौतिकवाद, बनता जिन्दा मानवों की दरगाह पर, 
जिसने दिया बचपन, अपनी जवानी, इस द्वन्द को, 
संघर्ष किया वामपंथ की राह पर, ईमानदारी से, 
लड़ा समाज के उन असूलों से, पूंजीवाद के नाम पर, 
क्या मिला, 
झुलसा आग की लपटों मे, मेरा शरीर, 
फेंका पेट्रोल, पानी समझ कर, अपने कामरेड पर,
जो बचा जिन्दा, तो प्रभु की नियामत है, 
क्या शोभा यात्रा है, देखें सभी अपनी-अपनी नजर से,
हम चले वर्तमान मे, अपने इतिहास की कब्र को लाल कर,
जिन्दा रहें तो मिलेंगे, यहीं इस जन-मानस मे
न मार सकेगा कोई, विचारो को मेरे,
वो तो जायेंगे, मेरे साथ ही, 
इस जगत से,
समझने  की जरूरत है, वर्ना इक ताल देना हस कर,
प्रभु भक्त समझ कर,
हाँ---- समझ कर कुछ भी,
शायद.  
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Friday, April 8, 2011

सबक आज का



अगर आपने गल्ती नहीं की, ये गुस्सा क्यों?
 अगर आपने गल्ती की, फिर भी गुस्सा, क्यों?

Tuesday, April 5, 2011

मायने---अप्रैल फूल के

बनाया अप्रैल फूल---बने शहनशाह
झूठ के किले के
जहाँ बचपन से योवन बना, इक अप्रैल फूल
परेशान किया, बनाया उसे फूल,
क्या पता था---बन जायेंगे जीता---जागता अप्रैल फूल
पढाई की, और पहुंचे शहर से महानगर मे,
जहाँ खोमचे वाले से, बड़े---बड़े शोरूम वाले,
बनाते अप्रैल फूल, हर किसी का
क्या रिक्शा, ऑटो, ब्लू लाइन बसे, टेक्सी---ये मानव
बनते और बनाते, फुल प्रूफ फूल इक-- दूजे को
हाँ, यही महानगर है,
जहाँ दिल, दिमाग, डिग्री, नोकरी 
की होती खरीद-फरोख्त, 
न जाने, 
बिकती होगी--- प्यार, शादी, तलाक, दीवारें घरों की, 
फिर तो बनते, संभलते, बिगड़ते, बदलते होंगे, 
भाई, बहिन, माँ--बाप, पता नहीं रिश्ते सभी, 
हा---हा---हा----हा---हा-----
बनाया मैंने, अप्रैल फूल आपको, 
महानगर की ये तस्वीर दिखा कर,
छोड़ा आपके ऊपर अब 
जिन्दगी के इस सबक को
बनो या बनाओ---अप्रैल फूल
अप्रैल फूल से अप्रैल फूल को.
                                                      ****** मुसाफिर क्या बेईमान

Friday, April 1, 2011

मेरा गुरुकुल---यादें मेरी

कहा गया, वर्णित है---
जैसा करोगे, वैसा भरोगे,
बता पायेगा, जीवन का अनुभव ही,
क्या-----
प्यार मे धोखा दिया, धोखा पाया,
और पालतू कुते ने काट खाया,
क्या-----
मारा गया कुर्सी पर बैठे---बैठे, हार्ट अटैक से,
पाई अथाह रुपयों की गठरियाँ, उसके ऑफिस से,
क्या---
भरी जवानी मे सिर गंजा हुआ, ठोकर लगी, इंतकाल हुआ,
नंगी राजनीति का खोफ था, उसका, लोगों के दिलों मे,
क्या----
छात्र--अध्यापक को गोली मार दी, विश्वविधालय के प्रांगन मे,
विश्वविधालय शिक्षा के केंद्र न रह कर, अदालती कटघरों मे खडे है,
क्या-----
साक्षात्कार कक्ष को उड़ा दिया, बम से, सभी निष्प्राण हुए,
पंद्रह साल से इंतजार किया, सैकड़ों साक्षात्कार दिए, लेकचरर बनने हेतु,
क्या---
मेरा विश्वविधालय मेरा गुरुकुल, नहीं रहा है ये, बन गया भूतों का डेरा,
जहाँ वातावरण मे सर्वत्र शिक्षा की, खुशबू फैली रहती थी,
थकान उतारने के लिए, चाय--कैंटीन थी, पेड़ के नीचे,
आओ, करें यादें इकटठी, बनाये नया वातावरण,
निकाले उन्हें, जो फंसे हुए है, कटघरों के दायरों मे,
फैलाएं सर्वत्र, उसी भीनी-भीनी खुशबू को, ज्ञान से,
प्रकाश से, सर्वत्र ही सर्वत्र.
                                             *******************मुसाफिर क्या बेईमान